सुश्री बिभा चौधुरी ने कभी शादी नहीं की। वो कुल छह भाई-बहन थे, लेकिन उनकी बाकी चार बहनें और इकलौता भाई भी आजीवन अविवाहित ही रहे; तो दुनिया की सोच का वो हिस्सा, जो शादी को उपलब्धि के रूप में देखता है, इस बात को लेकर उनसे कोई शिकायत करता तो शायद अपनी इस 'अनुपलब्धि' पर भी वो वैसे ही मुस्कुराकर मौन रह जाती, जैसी कि वो आजीवन अपनी उपलब्धियों को लेकर रहीं।
२३ वर्ष की आयु में १९३६ में कलकत्ता विश्वविद्यालय से भौतिकी में एमएससी करने वाली वो अकेली महिला थीं,
एमएससी होते ही वो, डी एम बोस के साथ रिसर्च कार्य में जुट गईं - दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्र में फोटोग्राफिक इमल्शन प्लेट का उपयोग कर अत्यंत सूक्ष्म कण 'मेसॉन' के ऊपर कार्य करते हुये दोनों ने 'नेचर' में एक के बाद एक तीन पेपर प्रकाशित किए, लेकिन फिर द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया और संवेदनशील इमल्शन प्लेट का मिलना मुश्किल हो गया तो उन्हें अपनी रिसर्च रोकनी पड़ी।कुछ साल बाद, उसी विषय पर, उनकी ही तकनीक का उपयोग कर सी एफ़ पॉवेल ने पाई मेसॉन और म्यूऑन को लेकर अपनी रिसर्च प्रकाशित की और उन्हें सन १९५० का भौतिकी का वो नोबल पुरुसकार मिला, जिस पर बोस और चौधुरी का अधिकार भी था।
लेकिन पॉवेल वैज्ञानिक थे और वैज्ञानिक अक्सर विशाल हृदय होते हैं; सो पॉवेल ने 'फोटोग्राफिक विधि द्वारा प्राथमिक कणों का अध्ययन' में लिखा भी कि, 'सन १९४१ में बोस और चौधुरी ने ये बताया था कि प्रोटोन और मेसॉन के पथों के अंतर को इमल्शन के द्वारा बताया जा सकता है,' आगे वो इस विषय में विस्तार से चर्चा करते हैं।
इस बीच अपनी पीएचडी की पढ़ाई के साथ, बिभा चौधुरी ब्रह्मांडिय किरणों के अध्ययन के लिए ब्रिटेन स्थित पीएमएस ब्लैकेट की लैब के साथ जुड़ गईं (आगे चलकर ब्लेकेट को १९४८ में नोबल पुरस्कार भी मिला)।
बाद में डॉ चौधुरी भारत आईं और टीआईएफ़आर (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडमेंटल रिसर्च) के साथ जुड़ गई, आठ वर्षों तक वहाँ काम करने के बाद वो फिज़िकल रिसर्च लैब. के साथ जुड़ी और कोलार गोल्ड माइन प्रयोगों के साथ गहराई से शामिल हो गई; उन्होने पीआरएल के डाइरेक्टर विक्रम साराभाई के साथ अपनी योजनाओं को लेकर बात की, लेकिन साराभाई की असामयिक मृत्यु के बाद उन्हें उनकी योजनाओं के साथ आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी गई।
वो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर कलकत्ता आ गईं और साहा इंस्टीट्यूट के साथ जुड़कर नाभिकीय भौतिकी पर काम करने लगी और सन १९९१ में अपनी मृत्यु तक वो कलकत्ता मे रहते हुये लगातार काम से ही जुड़ी रही।
उनकी किस्मत में कोई भी राष्ट्रीय पुरस्कार या फ़ेलोशिप नहीं आई ; यहाँ तक की आईएएस (इंडियन अकेडमी ऑफ साइंसेस, बेंगलोर) द्वारा २००८ में प्रकाशित पुस्तक 'लीलावती की बेटियों - भारत की महिला वैज्ञानिको' में शामिल ९८ महिला वैज्ञानिकों में भी उनका नाम दर्ज नहीं है।
इस दुनिया से वो गुमनामी में ही विदा हुई और लंबे समय तक वैसी ही रहीं।
आखिरकार अंतराष्ट्रीय समुदाय नींद से जागा और सन २०१९ में 'इन्टरनेशनल एस्ट्रोनोमिकल यूनियन' ने उनके योगदान को देखते हुये एक तारे को उनका नाम - 'बिभा' दिया। बस इतना ही।
और जहां तक भारत की बात है तो उनका नाम अभी भी गुम सा ही है।
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तो जहां से बात शुरू हुई थी ... शिकायत तो डॉ बिभा चौधुरी को होनी चाहिए थी; लेकिन वो वैज्ञानिक थी और वैज्ञानिकों का तो काम ही अज्ञानता के अंधेरों में अकेले ही ज्ञान का दीपक लेकर दाखिल होने से शुरू होता है।
शायद इस अंधेरे में भी वो बिना किसी शिकायत के मौन रहते हुये मुस्कुरा ही रही होंगी।
- अनिमेष

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