लिंकन को वह आग्रह बहुत ही साधारण तरीके से भेजा गया था, आयोजकों को ये कतई उम्मीद नहीं थी कि लिंकन उनका न्योता स्वीकार कर लेंगे; पर लिंकन ने उसे स्वीकार कर लिया। अवसर था गेटिसबर्ग में सैनिकों के राष्ट्रीय समाधिस्थल के समर्पण का। वह गृहयुद्ध जो 6,20,000 सैनिकों की बलि लेने वाला था,अपने चरम पर था।
ऐसे समय 1 जुलाई से 3 जुलाई 1863 के बीच गेटिसबर्ग में दोनों पक्षों (यूनियन और कन्फ़ेडरेट्स) के बीच एक बेहद रक्त रंजीत लड़ाई हुई जिसमें दोनों तरफ के कुल 41,112 सैनिक बलिदान हुए। समाधिस्थल इन्ही सैनिकों को समर्पित था। जब नवंबर 19 को लिंकन इस कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचे
तो वो मुख्य वक्ता नहीं थे। एडवर्ड एवरेट मुख्य वक्ता थे और उन्होने पूरे दो घंटे तक अपना भाषण दिया।उसके बाद जब लोग जैसे इस लंबी यंत्रणा के बाद थोड़ा हिलडुल ही रहे थे, कैमरामेन अपने कैमरे में प्लेट (उस दौर में वेट-प्लेट फोटोग्राफी होती थी, जिसका तामझाम खासा भारी भरकम रहता था) लगाने की तैयारी कर ही रहा था कि लिंकन अपना भाषण देने खड़े हुये।
उन्होने लगभग दो मिनट में अपना 272 शब्दों का भाषण दिया और बैठ गये। अगले दिन न्यूयॉर्क टाइम्स ने ये गलत रिपोर्ट किया कि वहाँ पाँच बार तालियाँ बजी और आखरी में भारी करतल ध्वनि हुई; जबकि तालियाँ वहाँ लगभग बिलकुल ही नहीं बजी। जबतक लोगों को पता चलता, तबतक भाषण खत्म हो चुका था। उस दिन के मात्र दो फोटो हैं पर लिंकन का भाषण करते हुये एक भी नहीं है।
लिंकन उस सभा से निराश लौटे।
उन्हें कभी नहीं पता चल पाया कि उस दिन, सैनिकों के उस अंतिम विश्राम स्थल पर उन्होने अपना ही नहीं बल्कि पूरे अमेरिकी इतिहास का सबसे महानतम भाषण दिया था। उस दिन वो नहीं बोल रहे थे, बल्कि एक राष्ट्र बोल रहा था, और जैसे वो खुद की नहीं बल्कि उन समस्त राष्ट्रों की बात कर रहा था जिनकी स्थापना पवित्र उद्देश्यों को लेकर हुई है। उस दिन उन्होने वहाँ पर सैनिकों के बलिदान, उनके समर्पण और ध्येय की बात की। एक दैवीय स्वर गूंज रहा था जो जीवित और मृत, उत्तर के और दक्षिण के, सभी सैनिको से संवाद कर रहा था। जब वो बैठे तब भी उनके भाषण के अंतिम शब्द गूंज रहे थे - "..... कि आज यहाँ ठान लें कि यह मरने वाले व्यर्थ नहीं मरे ...कि यह राष्ट्र, ईश्वर के अधीन, स्वतंत्रता का एक नया जन्म लेगा - और वह सरकार जो जनता की हो, जनता से हो, जनता के लिए हो, इस दुनिया से कभी समाप्त नहीं होगी"।
उन शब्दों को उस समय भले ही जनता सुनने से चूक गई हो पर, ज़मीन में सोये उन सैनिकों ने ज़रूर गहन आत्मसंतोष के साथ सुना होगा और आसमान में उपस्थित देवदूतों ने करतल ध्वनि के साथ उस भावना का स्वागत किया होगा।
- अनिमेष

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