अरंडी के पौधों को रेगिस्तान पसंद है। वहाँ उनके लिए कोई चुनौती नहीं होती, दूर-दूर तक ये खतरा नहीं होता कि बड़ी झाड़ियों और विशाल वृक्षों के बीच उन पर किसी की नजर नहीं पड़ेगी - उनके अस्तित्व को एक पहचान मिले इसके लिए रेगिस्तान होना ज़रूरी है ...
जीवनशून्य मरुस्थल, व्यवस्था के लिए हानिकारक हो सकता है लेकिन अरंडी के लिए तो वो लाभदायक है, इसीलिए हितोपदेशकालीन अरंडी के पौधे निर्जन, बंजर में उगना अपने लिए खुशकिस्मती मानते थे।परंतु आधुनिक अरंडी के पौधे उनसे बहुत आगे हैं, वो किस्मत पर भरोसा करने की बजाय कर्म पर विश्वास करते हैं - अपने 'अरंडीत्व' को बनाए बनाए रखने के लिए वो जहां उगते हैं, वहीं रेगिस्तान बनाने लग जाते हैं, उनके आसपास कोई भी ऐसा पौधा नहीं पनप सकता जिसमें महावृक्ष बनने की संभावनाएं हों।
वो बहुत चौकस निगाहे रखते हैं, हर पौधों को करीब से परखते हैं और यदि उसमें खुद से ऊंचे निकलने की ज़रा भी संभावनाएं पाते हैं तो उसे समूल उखड़वा देते हैं। उनके करीब वही पनप सकता है जो समझ, बुद्धि और आकार में उनसे भी छोटा हो ....
तो यदि अचानक ही कहीं ज्ञान सरिता से हीन, घनी झाड़ियों और महावृक्षों से रहित किसी रेगिस्तानी व्यवस्था के दुर्लभ दर्शन हो जाएँ तो ये मान लेना चाहिए कि उस व्यवस्था के बीच किसी अरंडी ने अपनी जड़ें जमा ली हैं।
- अनिमेष

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