समोसा होने की शर्त भी वही है जो इश्क की है - एक आग का दरिया है और डूब के जाना है ... और वो इस शर्त को शब्दशः पूरा करता है, वो गर्म तेल में डूबता है तो बस इसलिए कि उसे किसी से नहीं ... बल्कि किसी के लिए इश्क हो जाना है, अब बताईये भला उससे प्यार कैसे ना हो।
और बात केवल ऊपरी दिखावे की नहीं बल्कि वो भीतर से भी उतना ही खूबसूरत है; अपने भीतर ढेर सारे सपने समेटी हुई मैदे से बनी और तेल में तपी सुनहरी, कुरकुरी परत से जब जीभ की मुलाक़ात होती है तो लगता है डूबते मन के किसी कोने में उम्मीदों का सूरज उतर आया हो और जैसे ही उसे पार करो तो स्वादों का एक तेज बहाव दिमाग के हर तनाव को अपने साथ बहा ले जाता है। कुछ और कदम चलते ही दरदरे भरते का रूप धारण किए हुए आलू के टुकड़े, जबान और दांतों से बतकही शुरू कर देते हैं और तभी हल्की सी लाल मिर्च की चरपराहट, पिसे हुए धनिया के साथ मिलकर आती है और 'उसकी' सहेलियों सी ठिठोली कर जाती है; सोंफ के दाने का आना, सूखती जीभ को पहली बारिश की खुशबू से महका जाता है और खड़ी धनिया से मिलना चेहरे पर एक मुस्कान खिला जाता है।
मुंह में सच्चे समोसे का स्वाद, इंसान को बुरा बोलने, देखने और सुनने से रोक देता है, वो मौन और आत्मलीन हो जाता है, वो बस समोसे को देखता है और उसे लाल चटनी से सजाता है, उसे खाते हुए वो बस चिंतन और मनन करता है और एक ही साथ भावुक और समझदार, दोनो हो जाता है।
अपने आकार से रूखे गणित की याद दिलाने वाला समोसा अपने आप में एक इमोशन है - परतों में लिपटा हुआ एक प्योर इमोशन ... वो सरल है, उसे किसी लड्डू सी यहाँ से वहां लुड़कने वाली खेमेबाजी नहीं आती, वो अपने स्वाद को लेकर किसी जलेबी, इमारती सा बल नहीं खाता - उसके सम्बन्धों में स्थिरता है।
वो हर दृष्टि से एक राष्ट्रीय धरोहर और सांस्कृतिक प्रतीक होने के योग्य है, लेकिन चिंता की बात है कि आज वो भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।
अभी कुछ दिनों पहले ही भोपाल के न्यू मार्केट वाली समोसे की एक प्राचीन दुकान बंद हो गई, फिर भीतर वाली दो दुकाने भी अब निष्ठाएँ बदलकर सलवार सूट वगैरा बेचने लगी है; बहुत वक्त नहीं बीता है जब दस नंबर पर सहअस्तित्व को रेखांकित करती, कभी अड़ोस-पड़ोस की दो दुकाने हुआ करती थी - अब वो इतिहास हो गई है; ऐसे ही अरेरा कालोनी के विट्ठल मार्केट उर्फ बिट्टन मार्केट वाली दुकान को, एक बनती बहुमंजिला निगल गई।
ये चिंता का विषय है और समाज को इस पर ध्यान देने की जरूरत है। समोसा हमारी पहचान और अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा रहा है, वो हर आधी छुट्टी, पूरी छुट्टी और प्रकृति के सड़क पर निकलने के दौरान इंतज़ार का संगी रहा है - आज उसे आपके साथ की ज़रूरत है, यदि हम सप्ताह में मात्र दो समोसे खाने का भी प्रण ले लें तो वो बच जायेगा; यदि हम उन पुरानी दुकानों पर जाकर अपना विरोध जताएँ तो ये सिलसिला थम सकता है।
आशा है सभी मामले की गंभीरता को समझेंगे और सहयोग करेंगे।
(डिस्क्लेमर - पोस्ट का लेखक समोसे के संप्रदाय से है और इस मामले में पूरा सांप्रदायिक है।)
- अनिमेष

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