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Apwad the Exception - School Katha

कुछ लोगों को उकेरने के लिए पन्ने के पन्ने कम पड़ जाते हैं, पर अपने लिए तो एक ही शब्द काफी था; एक बेअदब, बेशऊर, बेमतलब सा शब्द, जो लगता था जैसे कतार से छिटक कर बाहर आ गया है; या शायद उसे दूसरे शब्दों ने धकेल बाहर किया हो। बचपन में कहीं पढ़ा था, पर मतलब समझते समझते ज़िंदगी निकल गई, जब लगता कि समझ आ गया, ज़माना राजी ना होता।

उसकी पहली पहल याद अक्तूबर के महीने की है, स्कूल में सहभोज था और सबको टिफिन लाना था, जिसे सबके साथ बैठकर खाया जा सके। टिफिन लाने और खाने जैसा काम तो लड़कियां करती थी, अपने जैसे तीसरी क्लास में पढ़ने वाले मर्द तो गेट के बाहर ठेला लगाए बैठी बाई से बेर का चूरन या कबीट खरीद के खाते थे; सो ३६४ दिन मर्द रहो, और एक दिन के लिए टाटपट्टी पर घेरे में बैठकर बेवकूफी करने को दिल ना माना।

अब ये गहरा दर्शन टीचर को पता ना था, सो वो बरस पड़ीं - "कल बताया था न? जब सब बच्चे डिब्बा लाये, तो तुम क्यों नहीं लाये?"
"मैडम, मैं अपवाद हूँ।" यही वो मारक शब्द था जिसको चलाने के लिए दिमाग मौके तलाश रहा था।
"दोनों हाथ आगे करो।" टीचर ने जैसे सबकुछ समझते हुये कहा।
हाथ आगे करते ही "चट्ट -चट्ट" की चार बार आवाज़ हुई, और उस अक्टूबर को, मासूम सी हथेली पर दो लाल लकीरे, लकड़ी की स्केल से कुछ तीरछी सी खींच गई। जाहिर है उन्हे लकीरें पसंद थी।

लकीरें, कतारे- कायदे को दिखाती हैं, हद में रहना सिखाती हैं, जमाना अपवादों से डरता है, लोग कतार से बाहर आने वालों को पसंद नहीं करते, उन्हे हद में रहने वाले लोग पसंद आते है, उससे परे जाने वालें उन्हे डरा देते है, उन्हे असुरक्षित महसूस कराते है। पर अगर हमेशा ऐसे ही रहता तो आदमी कभी बंदर से इंसान ही नहीं बनता। वो वहीं, अपनी हदों में उलझा पेड़ों पर टंगा रहता। बदलाव तो तब आया जब किसी ने वो लाइन तोड़ी और पेड़ों को कीड़ों के लिए छोड़, उतर कर ज़मीन पर आ गया, वक्त बीता उस दिलेर ने फिर सीमा लांघी और दो पैरों पर खड़ा हो गया। 
ये पूरी theory पूरे ताम-झाम के साथ जीवविज्ञान की टीचर के सामने दसवीं क्लास में पेश कर दी, सोचा था टीचर विकासवाद के सिद्धान्त को इस नवीन दृष्टि से देख खुश होंगी, शाबाशी देंगी; पर वो गब्बर सिंह ना निकली। मौका था क्लास को सजाने की प्रतियोगिता का और जहां दूसरे बच्चे इस ढक्कनपने को पूरी संजीदगी के साथ कर रहे थे, हम तीन दोस्तों ने लकीर पर चलने से इंकार करते हुये, क्लास के बाहर रखे दो गमले और अंदर की एक टेबल, समय का सदुपयोग करते हुये तबाह कर दिये। टीचर ने सवाल खड़ा किया कि "जब सब स्ट्यूडेंट्स काम कर रहे थे तो तुम लोगों ने ऐसा क्यों किया?"

जहां अपना जवाब वही पुराना था, तो उनका जवाब भी वही पुराना था; बस स्केल नई थी, और वो लोहे की थी; तो "...और ये सब यहाँ जो बैठे हैं, बंदर हैं और तुम इंसान हो ... " कहते हुये उन्होने नई लकीरे हथेली पर उकेर दी।
जाहिर है जमाना अपवादों के लिए तैयार नहीं था और ये सिलसिला यूं ही चलता रहा.....
इंजीनियरिंग में चार साल खोटे करने के बाद के बाद जब लोगों ने सवाल पूछा ".... अब तो तुम इंजीनियर बन गए हो ....." अपने से पहले शब्द कह उठे "नहीं, मैं अपवाद हूँ...."।

फिर जब 'वो' मिली, तो लगा जन्नत अगर कहीं हैं तो उधर ही है। दिन, महीने, सालों में बदल गए; एक दिन उस लफ्ज ने फिर सोते से जगाया और कतार से बाहर आने को उकसाया। साथियों ने समझाया कि इतनी बेहतरीन नौकरी कोई तजता है, कोई ऐसे ही अनदेखी अनजानी राहो पर भटकता है .... मन तो वाकई उस बार कतार में खड़ा "रश्मिरथी" सा कहना चाह रहा था - ...
"मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ.
अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,
हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये...... " *

पर फिर ध्यान आया, इस शब्द 'अपवाद' ने कवच बन ना जाने कितने तीरो को छाती पर झेला था,.... दुर्भिक्षे, शत्रुसंकटे, राजद्वारे .... जहां भी, जब भी कोई सवाल उड़ा था, जवाब बन ये सामने खड़ा था।
अब इससे प्यार ना हो तो किससे हो भला; अरे कोई अपने बंधु को भी कभी तजता है...
करने दो दुनिया को निरर्थक विवाद... अपना दिल तो आज भी अपवादों पर मचलता है।

- अनिमेष
(* पंक्तियाँ - श्री रामधारी सिंह दिनकर कृत "रश्मिरथी" से)

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