किताबों की उस दुकान पर जाना अपने आप में एक अलग ही अनुभव है। वैसे, बाहर से वो किताबों की दूकान कम और कोई कार्पोरेट इमारत ज्यादा लगती है। पार्किंग की अच्छी जगह, ऊंची सी इमारत जो दूर तक लंबी चली गयी है, दायें तरफ कोने में, भीतर जाने का एक छोटा सा दरवाजा। लेकिन भीतर जाते ही माहौल एकदम अलग है। हल्की सी ठंडक, सब कुछ एकदम शांत बस ऐसा लगता है जैसे दूर कहीं कुछ हल्का सा संगीत बज रहा है। कुछ लोग किताबों को यहाँ से वहाँ ले जाते हुये। आगे जाकर दायें तरफ एक बड़ा सा केबिन जहां इस पूरी व्यवस्था के संचालक बैठते हैं।
ना जाने क्यों, शायद उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है कि उन्हे चीफ़ कह कर बुलाना अच्छा लगता है।
उस दिन उनके ग्लास के दरवाजे को ठकठका कर भीतर चला गया।
चीफ़ कुछ पढ़ रहे थे।
"आओ, बैठो। इस बार जल्दी आ गए।" उन्होने अपनी नज़र ऊपर उठा कर कहा।
"इस बार किताब कुछ जल्दी खत्म हो गयी सो जल्दी आ गया, चीफ़।"
"HS-2646374 की किताब कैसी हालत में आई है?" उन्होने किसी से इंटरकॉम पर पूछा, स्पीकर चालू था।
"ठीक ठाक है। कहीं कहीं बिना मतलब कुछ लिख दिया। बाकी ठीक है।" उधर से किसी ने रिपोर्ट दी।
"तो क्या किताब की तुरंत जांच हो जाती है?" बात हैरत की थी सो पूछ लिया।
"करना पड़ती है। कई बार अगली किताब तुरंत देनी पड़ती है, सो रिपोर्ट भी तुरंत लेनी पड़ती है। कई किताबें बहुत फटी और गंदी हालत में आती है, तो उन पर जुर्माना लगाना पड़ता है। कभी कभी बेहतर भी वापस आ जाती है। तो ऐसे समय पुरस्कार भी देना पड़ता है। " उन्होने अपना लिखा पढ़ी का काम जारी रखते हुये ही जवाब दिया।
"जिस हालत में किताब गयी है उससे बेहतर हो कर वापस आती है! ऐसा भी होता है?"
"हाँ। बहुत कम होता है, पर ऐसा भी होता है।" उन्होने एक फ़ाइल बंद करते हुये कहा।
"पर किताब पढ़ेंगे तो वो पहले से बेहतर कैसे हो सकती है? आखिर कुछ ना कुछ निशान तो लग ही जाएगा। कहीं ना कहीं तो कुछ लिखा ही जाएगा।"
"ध्यान से पढ़ने से, सावधानी से उपयोग करने से और सुंदर लिखने से भी किताबें बेहतर बनती है। अब यदि किताब अच्छे से नहीं पढ़ी तो ये किताब के साथ अन्याय होगा। कई बार ऐसी किताबें वापस आती हैं जिनके पन्ने आपस में चिपके रहते हैं याने लोग उन्हे खोलकर पढ़ते तक नहीं।
देखो, ये तुम्हारे नाम से छपने वाली किताब केवल किताब ही तो नहीं है। ये किताब भी है और डायरी भी। हम तो केवल इसमें अध्यायों के नाम और कुछ घटनायें ही देते हैं। हर बात जो किताब में लिखी रहती है, लेखक को चुनाव का अधिकार देती है। आगे की कहानी उसके चुनाव के हिसाब से ही चलती है। यदि किताब के कथानक में सुंदर घटनायें जोड़ दें या खाली पड़े हुये स्थानों को सुंदर तरीके से भर दे तो किताबें बेहतर हो जाती है। समझे। " उन्होने अगली फ़ाइल निकालते हुये बताया।
"जी चीफ़।"
"तो इस बार तुम्हें कैसी किताब चाहिए?" उन्होने पेन उठाकर पूछा।
"जी मैं सोच रहा था .... मैं सोच रहा था... क्या ऐसा हो सकता है..... "
"निश्चिंत होकर बोलो। किताब तुम्हारी है, यदि संभव हो सका तो तुम्हारी इच्छा पर विचार किया जा सकता है।" उन्होने जैसे समझाते हुये कहा।
"जी मैं सोच रहा था कि क्या इस बार की किताब में कहानी खत्म हो सकती है। मैं श्रंखला नहीं चाहता।"
"श्रंखला में क्या समस्या है?"
"समझौते करने पढ़ते हैं। तनाव रहता है कि आगे की किताबों में क्या कहानी बनेगी। ना तो ये किताब ही ढंग से पढ़ पाते हैं और ना ही उसमें कुछ नया जोड़ पाते हैं। सब कुछ आगे की श्रंखला को ध्यान में रखकर करना पड़ता है।" हिचकते हुये चीफ़ से कह दिया।
चीफ़ कुछ देर देखते रहे फिर बोले, "और यदि तुम्हारा सह-लेखक ना माने तो? अधिकार तो उसके भी बराबर ही रहेंगे।"
"जी, मैं सह-लेखक भी नहीं चाहता।"
"बिना सह लेखक की केवल एक किताब? ऐसे लेखक को बाद में कोई याद नहीं करता। वो भुला दिया जाता है।"
"जी। पर यदि कोई किसी की यादों में रहना ही नहीं चाहे तो? यदि किसी को केवल यादें समेटने की इच्छा हो तो?"
"ऐसी किताबें बाद के अध्यायों में उबाऊ हो सकती हैं। ऐसा ना हो, इसका तुम्हें ही ध्यान रखना पड़ेगा।" चीफ़ ने सावधान करते हुये कहा।
"जी कोशिश रहेगी कि ऐसा ना हो।"
"जिस तरह की पुस्तक तुम बनवा रहे हो उसमें अध्याय कम होंगे पर हर अध्याय में खाली पन्ने ज़्यादा होंगे। यानी तुम्हारा काम ज़्यादा रहेगा। ठीक?"
"जी।"
"आखिर तुम्हारी इच्छा क्या है? शायद इस किताब में उस हिसाब से कुछ जोड़ा जा सके?" चीफ़ ने आंखो में आंखे डालकर पूछा ।
"जी बस इस किताब को लिखने और पढ़ने के बाद, अनपढ़ हो जाने की इच्छा है। इसके बाद अब और कोई किताब नहीं।"
"क्या यह पलायन नहीं है?" चीफ़ प्रश्न करने में कभी कमी नहीं रखते।
"पर पलायन के साथ अकर्मण्यता जुड़ी रहती है। वहाँ व्यक्ति अपने अस्तित्व के प्रति सजग रहते हुये, अपने कर्म से पलायन करता है। वहाँ वो अपने अस्तित्व के पोषण में कोई व्यतिक्रम नहीं चाहता। पर लेखक ना होने की इच्छा में तो कर्म के द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विगलन की आकांक्षा है। अतः ये पलायन नहीं होना चाहिए।"
"पर एक पुस्तक क्या एक अवसर नहीं है?"
"जी चीफ़, पर अवसर भी आखिर है तो मार्ग ही। तो क्या हमें मार्ग के बजाय लक्ष्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए। इसलिए इस बार ऐसी पुस्तक की इच्छा है जो लक्ष्य तक ले जाये। कोई श्रंखला ना हो, कोई सह-लेखक ना हो। तामसिक मोह का कोई स्थान ना हो।"
"ठीक है। तुम्हें तुम्हारी किताब मिल जाएगी।"
"धन्यवाद चीफ़। इस बार किताब कितनी बड़ी है?"
"वो नियम विरुद्ध है अतः बताया नहीं जा सकता। इतना जान लो कि इस बार किताब पिछली बार से लंबी होगी। बीच में कुछ पन्ने पढ़ने में परेशानी हो सकती है, कुछ प्रिंटिंग में भी गड़बड़ रहेगी। पिछली बार तुम 45 के पहले आ गए थे पर इस बार तुम 45 साल के पार जाओगे यह तय है।"
ना जाने क्यों, शायद उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है कि उन्हे चीफ़ कह कर बुलाना अच्छा लगता है।
उस दिन उनके ग्लास के दरवाजे को ठकठका कर भीतर चला गया।
चीफ़ कुछ पढ़ रहे थे।
"आओ, बैठो। इस बार जल्दी आ गए।" उन्होने अपनी नज़र ऊपर उठा कर कहा।
"इस बार किताब कुछ जल्दी खत्म हो गयी सो जल्दी आ गया, चीफ़।"
"HS-2646374 की किताब कैसी हालत में आई है?" उन्होने किसी से इंटरकॉम पर पूछा, स्पीकर चालू था।
"ठीक ठाक है। कहीं कहीं बिना मतलब कुछ लिख दिया। बाकी ठीक है।" उधर से किसी ने रिपोर्ट दी।
"तो क्या किताब की तुरंत जांच हो जाती है?" बात हैरत की थी सो पूछ लिया।
"करना पड़ती है। कई बार अगली किताब तुरंत देनी पड़ती है, सो रिपोर्ट भी तुरंत लेनी पड़ती है। कई किताबें बहुत फटी और गंदी हालत में आती है, तो उन पर जुर्माना लगाना पड़ता है। कभी कभी बेहतर भी वापस आ जाती है। तो ऐसे समय पुरस्कार भी देना पड़ता है। " उन्होने अपना लिखा पढ़ी का काम जारी रखते हुये ही जवाब दिया।
"जिस हालत में किताब गयी है उससे बेहतर हो कर वापस आती है! ऐसा भी होता है?"
"हाँ। बहुत कम होता है, पर ऐसा भी होता है।" उन्होने एक फ़ाइल बंद करते हुये कहा।
"पर किताब पढ़ेंगे तो वो पहले से बेहतर कैसे हो सकती है? आखिर कुछ ना कुछ निशान तो लग ही जाएगा। कहीं ना कहीं तो कुछ लिखा ही जाएगा।"
"ध्यान से पढ़ने से, सावधानी से उपयोग करने से और सुंदर लिखने से भी किताबें बेहतर बनती है। अब यदि किताब अच्छे से नहीं पढ़ी तो ये किताब के साथ अन्याय होगा। कई बार ऐसी किताबें वापस आती हैं जिनके पन्ने आपस में चिपके रहते हैं याने लोग उन्हे खोलकर पढ़ते तक नहीं।
देखो, ये तुम्हारे नाम से छपने वाली किताब केवल किताब ही तो नहीं है। ये किताब भी है और डायरी भी। हम तो केवल इसमें अध्यायों के नाम और कुछ घटनायें ही देते हैं। हर बात जो किताब में लिखी रहती है, लेखक को चुनाव का अधिकार देती है। आगे की कहानी उसके चुनाव के हिसाब से ही चलती है। यदि किताब के कथानक में सुंदर घटनायें जोड़ दें या खाली पड़े हुये स्थानों को सुंदर तरीके से भर दे तो किताबें बेहतर हो जाती है। समझे। " उन्होने अगली फ़ाइल निकालते हुये बताया।
"जी चीफ़।"
"तो इस बार तुम्हें कैसी किताब चाहिए?" उन्होने पेन उठाकर पूछा।
"जी मैं सोच रहा था .... मैं सोच रहा था... क्या ऐसा हो सकता है..... "
"निश्चिंत होकर बोलो। किताब तुम्हारी है, यदि संभव हो सका तो तुम्हारी इच्छा पर विचार किया जा सकता है।" उन्होने जैसे समझाते हुये कहा।
"जी मैं सोच रहा था कि क्या इस बार की किताब में कहानी खत्म हो सकती है। मैं श्रंखला नहीं चाहता।"
"श्रंखला में क्या समस्या है?"
"समझौते करने पढ़ते हैं। तनाव रहता है कि आगे की किताबों में क्या कहानी बनेगी। ना तो ये किताब ही ढंग से पढ़ पाते हैं और ना ही उसमें कुछ नया जोड़ पाते हैं। सब कुछ आगे की श्रंखला को ध्यान में रखकर करना पड़ता है।" हिचकते हुये चीफ़ से कह दिया।
चीफ़ कुछ देर देखते रहे फिर बोले, "और यदि तुम्हारा सह-लेखक ना माने तो? अधिकार तो उसके भी बराबर ही रहेंगे।"
"जी, मैं सह-लेखक भी नहीं चाहता।"
"बिना सह लेखक की केवल एक किताब? ऐसे लेखक को बाद में कोई याद नहीं करता। वो भुला दिया जाता है।"
"जी। पर यदि कोई किसी की यादों में रहना ही नहीं चाहे तो? यदि किसी को केवल यादें समेटने की इच्छा हो तो?"
"ऐसी किताबें बाद के अध्यायों में उबाऊ हो सकती हैं। ऐसा ना हो, इसका तुम्हें ही ध्यान रखना पड़ेगा।" चीफ़ ने सावधान करते हुये कहा।
"जी कोशिश रहेगी कि ऐसा ना हो।"
"जिस तरह की पुस्तक तुम बनवा रहे हो उसमें अध्याय कम होंगे पर हर अध्याय में खाली पन्ने ज़्यादा होंगे। यानी तुम्हारा काम ज़्यादा रहेगा। ठीक?"
"जी।"
"आखिर तुम्हारी इच्छा क्या है? शायद इस किताब में उस हिसाब से कुछ जोड़ा जा सके?" चीफ़ ने आंखो में आंखे डालकर पूछा ।
"जी बस इस किताब को लिखने और पढ़ने के बाद, अनपढ़ हो जाने की इच्छा है। इसके बाद अब और कोई किताब नहीं।"
"क्या यह पलायन नहीं है?" चीफ़ प्रश्न करने में कभी कमी नहीं रखते।
"पर पलायन के साथ अकर्मण्यता जुड़ी रहती है। वहाँ व्यक्ति अपने अस्तित्व के प्रति सजग रहते हुये, अपने कर्म से पलायन करता है। वहाँ वो अपने अस्तित्व के पोषण में कोई व्यतिक्रम नहीं चाहता। पर लेखक ना होने की इच्छा में तो कर्म के द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विगलन की आकांक्षा है। अतः ये पलायन नहीं होना चाहिए।"
"पर एक पुस्तक क्या एक अवसर नहीं है?"
"जी चीफ़, पर अवसर भी आखिर है तो मार्ग ही। तो क्या हमें मार्ग के बजाय लक्ष्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए। इसलिए इस बार ऐसी पुस्तक की इच्छा है जो लक्ष्य तक ले जाये। कोई श्रंखला ना हो, कोई सह-लेखक ना हो। तामसिक मोह का कोई स्थान ना हो।"
"ठीक है। तुम्हें तुम्हारी किताब मिल जाएगी।"
"धन्यवाद चीफ़। इस बार किताब कितनी बड़ी है?"
"वो नियम विरुद्ध है अतः बताया नहीं जा सकता। इतना जान लो कि इस बार किताब पिछली बार से लंबी होगी। बीच में कुछ पन्ने पढ़ने में परेशानी हो सकती है, कुछ प्रिंटिंग में भी गड़बड़ रहेगी। पिछली बार तुम 45 के पहले आ गए थे पर इस बार तुम 45 साल के पार जाओगे यह तय है।"
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