जब मिस्र की रानी क्लियोपेट्रा को पता चला कि उसके साथी मार्क एंटनी ने ओक्टेविया से शादी कर ली है तो वो गुस्से से पागल सी हो गयी और संदेशवाहक पर दहाड़ी कि वो ना सिर्फ उसकी आंखे निकलवाकर उनसे गोटियाँ खेलेगी बल्कि उसकी खुपड़िया का मुंडन करेगी सो अलग (".... horrible villain, or I’ll spurn thine eyes Like balls before me! I’ll unhair thy head! " - शेक्सपीयर भाऊ उर्फ William Shakespeare: Antony and Cleopatra, Act II. Scene V)।
बहरहाल, मुद्दे की बात ये कि संदेशवाहको का काम बेहद खतरनाक और जोखिम भरा काम है। ज़रा ज़बान फिसली नहीं कि आँख-बाल से फ़ुरसत। बस कान बचते हैं, उनसे ही गोटियों की टनाटन सुनते रहो ज़िंदगी भर। ।
अब ये किस्सा उस दिन अचानक एक डिनर पार्टी मे ध्यान आ गया। वहाँ एक परिचिता से मुलाक़ात हो गयी। मिले हुये कई साल हो गए थे सो पहचान ना सके।
पर वो पहचान गयी।
उनकी कोशिशों से यादों पर पड़े मकड़जाल हटे तो वो भी याद सी आ गयी। अब भूल तो हो गयी थी पर उनकी निगाहें इसे किसी संगीन जुर्म से कम मानने को तैयार ना थी। ना पहचानकर, उन्हे उनकी बढ़ती उम्र का संदेश पूरी ताकत से सुनाया था।
खतरा सर पर मंडराने लगा। संदेशवाहकों के साथ क्या क्या हो सकता इसके सारे खौफनाक मंज़र अब तक जैसे तैसे बची हुई डेढ़ आँखों के सामने घूम गए। अब अपनी आँखों से कोई गोटिया भले ना खेल सके पर अष्टा-चंगा-पे तो खेल ही सकता है। मौके को नाजुक जान, ना पहचान पाने की तमाम वजहें गिना डाली : आंखे , याददाश्त, शोर, मौसम, चीन, पाकिस्तान, ग्लोबल वार्मिंग, फलाना-ढीमका । पर इस सबके बाद भी वो पहचान गयी थी और हम नहीं।
यही उन्होने कहा भी।
बहरहाल, मुद्दे की बात ये कि संदेशवाहको का काम बेहद खतरनाक और जोखिम भरा काम है। ज़रा ज़बान फिसली नहीं कि आँख-बाल से फ़ुरसत। बस कान बचते हैं, उनसे ही गोटियों की टनाटन सुनते रहो ज़िंदगी भर। ।
अब ये किस्सा उस दिन अचानक एक डिनर पार्टी मे ध्यान आ गया। वहाँ एक परिचिता से मुलाक़ात हो गयी। मिले हुये कई साल हो गए थे सो पहचान ना सके।
पर वो पहचान गयी।
उनकी कोशिशों से यादों पर पड़े मकड़जाल हटे तो वो भी याद सी आ गयी। अब भूल तो हो गयी थी पर उनकी निगाहें इसे किसी संगीन जुर्म से कम मानने को तैयार ना थी। ना पहचानकर, उन्हे उनकी बढ़ती उम्र का संदेश पूरी ताकत से सुनाया था।
खतरा सर पर मंडराने लगा। संदेशवाहकों के साथ क्या क्या हो सकता इसके सारे खौफनाक मंज़र अब तक जैसे तैसे बची हुई डेढ़ आँखों के सामने घूम गए। अब अपनी आँखों से कोई गोटिया भले ना खेल सके पर अष्टा-चंगा-पे तो खेल ही सकता है। मौके को नाजुक जान, ना पहचान पाने की तमाम वजहें गिना डाली : आंखे , याददाश्त, शोर, मौसम, चीन, पाकिस्तान, ग्लोबल वार्मिंग, फलाना-ढीमका । पर इस सबके बाद भी वो पहचान गयी थी और हम नहीं।
यही उन्होने कहा भी।
"क्या पहचानना इतना मुश्किल हो गया है," उन्होने खाने की प्लेट एक तरफ रख, रुमाल के कोने से डबडबा आई आँखों के कोरों को सहलाते हुये कहा, "उम्र तो मेरी अभी कोई खास नहीं हुई।"
"अरे नहीं, बिलकुल नहीं। बिलकुल वैसी ही हो जैसी तब थी। भरोसा न हो तो आईना देख लो। "
वो अचानक बोली - "नहीं आईने तो रहने ही दो। मुझे आजकल लोगों से ही नहीं आइनों से भी नफरत हो गई है, उम्र 30 हो पर दिखाते 60 हैं।"
और इस एक वाक्य ने उसके मन के डर, उसके अंतस में छाए अँधेरों के बारे में बता दिया। यहाँ केवल अपने दीदे ही दांव पर नहीं लगे थे, उस बेचारी ने अपनी सारी खुशियाँ ही दूसरों; चाहे फिर वो आईने हों या लोग, की राय तले दबा दी थी।
सो, आर्टिफ़िशियल 'सच' की बिसात बिछाना ज़रूरी हो गया। कृत्रिम 'सच' में बड़ी ताकत होती है, वो हर संदेह से परे जाकर विश्वास जगाता है। विश्वास से ही स्वीकार्यता के लिए मार्ग प्रशस्त होता है। और तभी मनुष्य को सच का सामना करने के लिए तैयार किया जा सकता है। कुछ कुछ टीके की तरह।
"तुम समझी नहीं, लोग दूसरों को इसलिए भी नहीं पहचान पाते क्योंकि उनकी याददाश्त कमजोर होती है। पर उस समय भी क्या गजब तो तुम्हारा दिमाग था और क्या तो याददाश्त थी। अहा ! और सबसे अच्छी बात उम्र ...अ .... मेरा मतलब वक़्त के साथ तो ये और भी तेज़ हो गया है। भई वाह! गजब है! तुम तो सभी को पहचान लोगी। "
"अरे नहीं, ऐसा तो कुछ भी नहीं है।" शायद मन के अंधेरे कोने में कहीं एक दीप स्वतः ही प्रदीप्त हो गया जिसके प्रकाश से उसकी आँखों में एक चमक सी आ गयी।
"वैसे ये तो तुमने सही कहा, आईने बेहद खतरनाक होते हैं, उनपर भरोसा नहीं किया जा सकता। आप उनसे भलमनसाहत की उम्मीद कर ही नहीं सकते। वो आपके बारे में आपसे कहीं ज़्यादा जानते हैं, पर दिखाते वहीं है जो आपको सबसे ज़्यादा नापसंद हो। आईने शैतानी होते हैं। " हमने फैसला सा सुना दिया।
"बिलकुल सही !" उन्होने अपनी खाने की प्लेट वापस उठाते हुये कहा।
"पर हम आईनों को इतनी अहमियत देते ही क्यों है? हम किसी को भी खुद को परिभाषित करने हक ही क्यों दे? आईने तो 2डी होते हैं इसलिए उनमें गहराई नापने की काबिलियत हो ही नहीं सकती। ऐसा ही ज़्यादातर लोगों के साथ भी है, वो भी दो आयामी ही होते हैं। उनमें उस सबसे खास आयाम को पहचानने की क्षमता ही नहीं होती जो मनुष्य को विशिष्ट बनाता है। कॉफी लोगी? "
"हाँ, पर शक्कर कम। हम कहाँ अहमियत देते है? वो ही खुद को हमारे ऊपर थोप देते है।"
"वो इसलिए थोप पाते हैं क्योंकि हम खुद को जैसे हैं वैसे ही स्वीकार नहीं कर पाते। हम खुद को नकार कर बस आईने के लिए जीने लगते है। हमेशा अपने बीते हुये कल के मोह में पड़े रहते हैं और इस बीच अपनी ज़िंदगी में कितना जोड़ लिया है ये देखते ही नहीं। उम्र चेहरे पर झलकने में क्या परेशानी है? वो तो अनुभव की निशानी है। " कम शक्कर वाली कॉफी धीरे धीरे पीते हुये 'क्लियोपेट्रा' सुनती भी रही और शायद कुछ गुनती भी रही। फिर बोली - "तो फिर हमें आइनों की ज़रूरत ही क्या है?"
"आइनों की भी ज़रूरत है और लोगों की भी। आईने कभी हमें हमारी कमियाँ बताते है तो कभी हमारे कर्तव्य दिखाते हैं। वो बताते हैं कि हमें खुद को कहाँ ठीक करना है। अब देखो ना कितने ही लोग रोज़ सवेरे उठकर बरसों आईने में इस उम्मीद से झाँकते हैं कि शायद उधर से कोई अक्षय या ऋतिक झाँकता मिलेगा और फिर एक दिन ए. के. हंगल को आईने से झाँकता पाकर उसे स्वीकार नहीं कर पाते। जब हम आइनों मे किसी दूसरे को तलाशना छोड़ खुद को तराशना शुरू कर देंगे, हम सुखी हो जाएँगे। और कॉफी लोगी?"
"न... नहीं । थैंक्स। ज़्यादा कॉफी से एसिडिटी हो जाती है। वो मिरर के कर्तव्य वाली क्या बात थी?"
"अच्छा वो ..... आईने ये भी तो बताते हैं कि हमने ज़िंदगी में कितना रास्ता तय कर लिया। और क्या रास्ते को लेकर कुछ बदलाव करना है। अब रामचरित मानस में एक प्रसंग आता है , महाराज दशरथ दर्पण में देखते हैं और -
'श्रवन समीप भए सित केसा, मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू, जीवन जनम लाहु किन लेहू' .....
उन्होने आईने में देखा कि उनके कान के पास के बाल सफ़ेद हो गए मानों आती हुयी वृद्धावस्था ये कह रही हो कि अब श्रीराम को युवराज बनाकर अपने जन्म और जीवन का लाभ लो। तो आईने हो गए, हमारे परिचित लोग हो गए, यदि हम सही दृष्टि से उन्हे देखेंगे तो पाएंगे कि वो तो हमेशा से वहाँ हमारे भले के लिए मौजूद थे पर हमारा ही ध्यान नहीं गया।"
"Wow ! मैंने ऐसे सोचा ही नहीं था, " उन्होने अपने मोबाइल में खुद के चेहरे को हल्की मुस्कुराहट के साथ देखते हुये कहा, " अच्छा अब कभी मिलोगे तो पहचान तो लोगे ना?"
"यदि तुमने मेरी आंखे नहीं निकलवाई, तो बिलकुल पहचान लूँगा।"
"मैं भला तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन क्यों करूंगी? अब ऐसी भी नहीं मैं।" वो हँसते हुये बोली।
"काश क्लियोपेट्रा भी तुम्हारी जैसी समझदार होती तो क्या बात होती।" कॉफी के आखरी घूंट के साथ हमने कह ही दिया।
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