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Bruce Lee - The Childhood Hero

इंसान को हीरो की तलाश हमेशा से ही रही है। इस तलाश में कहीं ना कहीं खुद की खोज भी शामिल रहती है। शायद इसलिए बचपन में हम बच्चों के पाँच-छह साल के नन्हें दिमागों और विशाल कल्पनाओ पर जो एकदम से छा गया वो था ब्रूस ली।
वो टीवी से पहले का ज़माना था। मिट्टी के तेल से मिलती जुलती अजीब सी गंध से गंधाता अखबार कुछेक घरों मे ही आता था। सो जानकारियाँ अफवाहों से ही मिलती थी और ब्रूस ली के मामले में तो ये बाज़ार खूब गरमाया, 'ब्रूस ली इतने तेज हाथ चलता है कि शूटिंग स्लो मोशन में करनी पड़ती है',' 'फिल्मों मे वो फर्जी नहीं बल्कि असली पिटाई करता है'।  उसकी ताकत, तेजी, और खानपान को लेकर भी बच्चों मे खूब गहमा गहमी थी। 
ऐसे ब्रूसमय वातावरण  में एक दिन घर में मां ने मूँगफली के छिलके हटाकर रखे हुये थे, शायद मूँगफलियों को खलबत्ते में पीसना था। उधर से भैया निकले तो उन्हे इसमें मौका नज़र आ गया। उन्होने इस बाल ब्रूसली फैन को ब्रूस की ताकत और तेजी के राज का खुलासा करते हुये बताया कि वो रोज नाश्ते में सिर्फ मूँगफली के छिलके खाता है। बड़े भाई ऐसे ही होते हैं।
थोड़ी देर बाद जब माँ मूँगफली के छिलके फेंकने के लिये आईं और उन्हे ना पाकर उन्होने वहाँ शांत भाव से बैठे ब्रूस भक्त से इस बाबत पूछताछ की तो, अंदर ही अंदर गजब की फुर्ती को जज़्ब करते हुये सिर ऊपर उठाकर छिलकायुक्त दंतपंक्ति के साथ मुस्कुरा कर देखा और दौड़ लगा दी।
"खा गया? मूँगफली के छिलके खा गया? इस लड़के मारे तो नाक में दम .... " एक साथ तीन तीन सीढ़ियों को पहली बार कूदकर पार करते हुये बस इतना ही सुनाई दिया।
बाहर निकलकर बिजली के खंबे को जो पत्थर खींच कर मारा तो सीधा निशाने पर लगा। मूँगफली के छिलके काम कर रहे थे।
यदि विश्वास में शक्ति होती है तो उस दिन से ज्यादा शक्तिशाली शायद ही कभी अनुभव किया हो।

ऐसे माहौल में लाइब्रेरी से एक "साप्ताहिक हिंदुस्तान" घर आई जिसके बीच वाले पन्ने पर ब्रूस का शानदार 'ब्लो-अप' था। बदन पर कुछ घावों के निशान, लेकिन फिर भी चीते सी चौकस निगाहों के साथ दिलेरी से वार करने के लिए तैयार खड़ा था। बैकग्राउंड नीले रंग का था।
ये पोस्टर तो चाहिए ही चाहिए था।

पर एक समस्या थी।
Bruce Lee
घर में लाईब्रेरी की किताबों पर पेन तक चलाने की सख़्त मुमानियत थी, पोस्टर फाड़ने जैसे संगीन गुनाह के लिए तो तबीयत से कुटाई होना तय था। पर यदि इतने भर से कदम पीछे खींचने लगे तो फिर - 'ब्रूसली की काहे, जाकर किसी भी पोपट की फोटो लटका लो' जैसी बातों से मन को समझाकर एक प्लान तैयार किया।
शनिवार की शाम लाईब्रेरी से किताबें बदलने के लिए ले जायी जाती थी, सो मौका देखकर लाइब्रेरी के लिए निकलने के एन पहले शाम पाँच बजे वारदात की जाये। किसी को कानों कान खबर नहीं होगी और 'दौलत' बेइंतिहा मिलेगी।
अब दूसरी समस्या ये थी कि घड़ी देखनी नहीं आती थी। घर में टाइम पूछते तो किसी को भी शुबहा हो सकता था कि ये टाइम क्यों जानना चाह रहा है? आखिर इसका मकसद क्या है? सो तय हुआ कि घड़ी के छोटे कांटे और बड़े कांटे की स्थिति बताकर पड़ोस की ताई से टाइम पूछा जाएगा। प्लान जटिल हुआ तो गिरोह में लोग बढ़ गए। नाली के पास के पत्थरों पर बैठकर प्लान को पुख्ता किया गया। सबको विद्या की कसम दी गयी।
 
आखिर वारदात वाले दिन जैसे ही सूरज ने पश्चिम का रास्ता पकड़ा, नन्हें दिलों की धड़कने बढ़ गयी। माहौल में अजीब सी सनसनी थी। हर कदम पर पकड़े जाने का अंदेशा था।
पर प्लान कामयाब रहा, सब कुछ जैसा सोचा था वैसा ही हुआ। पाँच बजे के पहले पहले 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' से जुदा होकर 'पोस्टर' गद्दे के नीचे पंहुच चुका था। शाम छह बजे तक तो 'सड़ी सुपारी मन में डाली, सीताजी ने कसम उतारी' बोल कर सबकी कसमें उतारी जा रही थी।  
अगले दिन, आटे की गरम लेई बनाकर, दुनिया वालों की नज़रो से दूर एक दरवाजे के पीछे उसे चिपकाया गया। लगभग अगले डेढ़ बरस तक वो वही रहा। वो ज़िंदगी का पहला और आख़री पोस्टर था जो इस मुकाम तक पहुंचा, फिर उसकी जगह कोई और नहीं ले पाया।
लेकिन ब्रूस से एक मुलाक़ात होना और बाकी था। लगभग एक साल बाद, रिश्तेदारी में एक शादी आई। दूर दूर से सब मेहमान पहले से ही भोपाल पहुँचने लगे। बातों के, हंसी ठहाको के, हिदायतों और शाबाशियों के दौर चलने लगे। ऐसे खुशनुमा माहौल में कुछ बड़ों ने तय किया की फिल्म देखी जाये। ब्रूस की 'एंटर द ड्रैगन' लगी थी, वही देखने जाना तय हुआ।
भैया ने सहसा पूछ लिया "चलेगा फिल्म देखने?"
 
अपने कानों और किस्मत पर सहसा भरोसा नहीं हुआ। कहते हैं कभी कभी ज़िंदगी में इच्छापूर्ति के क्षण आते हैं, ये निश्चित रूप से उनमें से एक था।

जाहिर है बड़े भाई ऐसे ही तो होते हैं।

जब तक 'नटराज' टाकीज़ में दाखिल नहीं हो गए, एक धुकधुकी सी लगी रही। अंदर पहुँचने के बाद एक नया टेंशन शुरू हो गया। अँग्रेजी से स्कूल में मुलाक़ात होने मे अभी कुछ साल बाकी थे, यहाँ एबीसीडी का अता-पता नहीं था और ये तो पूरी फिल्म ही अँग्रेजी मे थी।
पता नहीं क्या होगा? अब बात पूरी तरह से ब्रूस के हाथों मे थी।
और उसने पूरा ख्याल रखा।
 
शब्द वहाँ बेमानी थे। वो तो मार-कुटाई वाली जनभाषा में बोल रहा था। ये वो भाषा थी जिसे इंसान तो क्या भूत भी अच्छे से समझते थे। वो दिन शानदार रहा।
बाद के सालों मे उसकी सारी ही फिल्मे देखी, कई बार देखी। उसकी लिखी किताबें पढ़ी तो पाया कि उसकी 'जीत-कुन-डू' का फ़िलॉसफ़ि वाला हिस्सा उसके जीवन में ज्यादा मायने रखता था ना की मार्शल आर्ट वाला।
उसने मार्शल आर्ट को विज्ञान की नज़र से समझा, उसे कला की ऊंचाइयों तक पहुंचाया और दर्शन का आधार दे कर उसे अमर कर दिया।

वो अपनी एक किताब में कहीं कहता है -  "Remembrance is the only paradise out of which we cannot be driven away. Pleasure is the flower that fades, remembrance is the lasting perfume."

...... और यादों में वो हमेशा बना रहेगा ...
वो वाकई में कमाल था।

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