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Cycle Riding - an Adventure of a different kind

किसी समझदार व्यक्ति ने कभी कहा था - "साइकल चालक वो नासमझ इंसान होता है जो सोचता है कि साइकल उसे सब जगह ले जा रही है, जबकि वास्तव में वो ही साइकल को सब जगह लेकर जाता है।"
उनके शहर का तो पता नहीं पर एक वक़्त था जब ये पूरा शहर ही साइकिलों पर घूमता था। उस समय सड़कों पर गाडियाँ का कब्जा नहीं हुआ था, कुछ सरकारी बस और इक्का दुक्का कारें। कभी कभार स्कूटर दिख जाया करते थे।तब बाज़ारो, दफ्तरों, स्कूलों, कॉलेजों, सभी जगह साइकिलों को तरतीब से खड़ा करने और लुड़कने से रोकने के लिए लोहे के साईकिल स्टेंड बने रहते थे।
वो शहर पर साइकिलों की हुकूमत का दौर था। आबोहवा सेहतमंद थी, आसमान ज़्यादा नीला और धूप अधिक सुनहरी थी। सुबह चिड़ियों की आवाज़ों के साथ होती थी तो रातें टिमटिमाते तारों के सुकून तले गुजरती थी।

उस समय हर आज़ादी पसंद लड़के का ख्वाब होता था, उसकी अपनी एक साइकिल होना। जो उसे उसकी दुनिया में जब और जहां वो चाहे, तब और वहाँ उसे लेकर जाये। अपनी तो ज़िंदगी में अभी तक जितनी भी साइकिलों ने जगह बनाई सभी ने हर कदम पर साथ दिया। पैडल के एक इशारे पर वो मंज़िल की और चल पड़ती थी। हाँ ये सच है कि उस दौर की साइकिलों से रिश्ता बनाना थोड़ा मुश्किल होता था, पर एक बार बन जाये तो पूरी ज़िंदगी कायम भी रहता था। ये वो हुनर था जो दिमाग से नहीं जिगर से सीखा जाता था।

पहले साबित करना पड़ता था कि आप साइकल चलाने लायक हो या नहीं, और इम्तिहान बेहद मुश्किल हुआ करता था। ख़ासी ऊंची साइकल पर सबसे पहले "कैंची" चलाना सीखना पड़ता था - याने कि साइकल पर बाहर की और बोरे जैसे लटक कर, दो डंडों बीच पैर डालकर करतब करते हुये पैडल मारना।
नज़रें सामने, बायाँ हाथ हेंडिल पर, दायाँ डंडे पर, कंधा सीट पर, जान हलक में और कलेजा मुंह में -
यकीन मानिए रॉकेट चलाना तो बच्चों का काम है, असली मर्द तो साइकल पर हाथ आजमाते थे। पर ऐसे हाथ आजमाने घर की साइकिल मिलने लगे तो उसे तबाह होते वक्त ना लगे। ऐसे मुश्किल वक़्त पर चलाने के लिए किराए से साइकल भी मिला करती थी। यदि ज़ेब इजाजत दे तो आठ आने मे एक घंटे या चार आने मे आधे घंटे के लिए सड़क पर हुकूमत की जा सकती थी।

तो हर शाम, तबीयत से गधामार खेलने के बाद, सुलगती पीठ और धड़कते दिल के साथ साइकिल पर कैंची चलाते चलाते, कब "डंडा" और फिर "सीट" चलाने लगे पता ही नहीं चला। फिर तो जैसे पैरों में पहिये नहीं पर ही लग गए। दोस्तों के साथ दूर दूर तक हौंसले आजमाये जाने लगे, भोपाल ने जैसे अपना हर दरवाजा हम मस्केटियर्स के लिए खोल दिया।
Cycle, Life and Bhopal
दूर दूर तक मुहिमों पर जाने का रोमांच ही अलग था। दायरा बढ़ने लगा तो शहर छोटा लगने लगा। पहले हर चीज़ पहुँच के बाहर लगती थी, अब सब करीब थी।

भोपाल के बाज़ार, मशहूर जगहें, पुरानी दुकाने और नए कारखाने, सब नज़रो के सामने खुलने लगे।  पहले शहर के जिन कोनों के नाम भी अनजाने थे वो अपने से हो गए, सालों तक यादों मे बने रहे कुछ ऐसे किस्से हो गए।

बारिश में भीगते हुये किसी भी  ट्रेक्टर ट्रॉली को पीछे से थाम कर चलते हुये जाना कि मौसम बदलते ही शहर का मिजाज बदल जाता है। तब बारिशों में शहर थमता नहीं था, हौले से लोगों के साथ साथ पानी के लिए भी जगह बन ही जाती थी। दूर दूर तक तनी हरी कनात और उसमें गुलमेहंदी, गुलबाक्षी और दूसरे मौसमी पौधों की सजावट, बरबस ही, भागते हुये कदमों को भी थाम लेती थी।
ठंडों मे शाम ढलते ही बस्तियों में जलते हुये पत्थर के कोयले की खुशबू और लटके हुये धुए के बादल, पैडल मारते पैरो को ही नहीं दिलों को भी सुकून भरी गर्माहट के अहसास से भर देते थे।

धीरे धीरे ज़माना गुज़र गया, चैन उतरना-चढ़ाना, पंचर होना-बनवाना, वक़्त के साथ गिरना-उठना, साइकिल ही नहीं ज़िंदगी के साथ भी होता है यह समझ में आ गया। अब चाहे साइकिल हो या ज़िंदगी, मंज़िल तक पहुँचना है तो पैडल तो मारने ही पड़ेंगे।

साइकिल, शायद सवार को सब जगह लेकर ना जाती हो, पर कोशिश करे तो ज़िंदगी में हर जगह पहुंचा जा सकता है, ये ज़रूर सिखाती है।

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